मेहनत का रंग

 

चाहने से क्या कुछ नहीं मिल सकता; बस हमारे मन में उस कार्य को करने का जुनून होना चाहिए और हमेस्वयं पर पूर्ण विश्वास भीहोना चाहिए कि हम वह कार्य कर सकते हैं। यह विश्वास हीहमें एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है जिससे हमें विभिन्न कार्यों को करने की प्रेरणा मिलती है और हम अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते है। इसलिएहमें हमेसा एक दृढ़ संकल्प के साथ निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए । हमारे द्वारा किया जा रहा यह प्रयास ही हमे आगे बढ़ाता है और निर्धारित लक्ष्यों तक पहुँचने में हमारी सहायता करता है। यदिहमएक बार अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाये और उसको पाने का भरसक प्रयास करें तो थोड़ी देर में ही सही लेकिन सफलता तो एक दिन अवश्य मिलनी हीहै । जहाँ तक बात सुख- दुःख और कठिनाइयों की है तो यह सभी जीवन के अभिन्न अंग हैं; इनसे बचना संभव नहीं; इसलिए हमे इन सबकी परवाह किये बिना अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहना चाहिए; क्योंकिसही मायने में सफलतातोवही है जो कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके मिले ।

 

आज अपने इस लेख के माध्यम सेमैं आप सबको एक ऐसे मेहनतकश, सफाई पसंद, परिश्रमी, ईमानदार और सत्यनिष्ठ व्यक्तित्व के बारे में बताने जा रहा हूँ जिसने अपने व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा अपने विद्यालय प्रांगण का स्वरुप ही बदल दिया । दुनिया की दृष्टि में इनका पदछोटा हो सकता है, लेकिन इनकी सोच आकाश से भी ऊँची है, जो बाकी व्यक्तियों से इन्हें अलग बनाती है।  इस व्यक्तित्व का नाम है- श्री पुरुषोत्तम। विद्यालय में सब इनको प्यार से ‘पुरुषोत्तम दादा’ अथवा ‘दादा’ कह कर सम्बोधित करते हैं । यहाँ दादा का अर्थ होता है ‘बड़े भाई ।‘ इनका जैसा नाम है, वैसा ही इनका व्यक्तित्व है । इनका आदर्शमय व्यक्तित्व ही इनको सभी लोगों में उत्तम बनता है ।

 

 

श्री पुरुषोत्तम दादा अपने जीवन के 59 वर्ष पूरे कर चुके हैं । पहले ये बी.आर.सी. में चपरासी का कार्य करते थे । वैसे एक चपरासी का कार्य कार्यालय में दस्तावेजों को एक अफसर से दूसरे अफसर तक पहुँचाना; चाय-पानी देना और कार्यालय के तमाम कार्य करना होता है । लेकिन दादा इन कार्यों के साथ-साथ कार्यालय के परिसर की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देते थे। दादा ने कार्यलय परिसर को स्वच्छ रखने के साथ-साथ, यहाँ वृक्षारोपण पर भी विशेष ध्यान दिया और अपने हाथ से गमले बना-बना कर उसमे पौधे लगाये । जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चों का ध्यान रखती है, ठीक उसी प्रकार पुरुषोत्तम दादा भी पेड़-पौधों का ध्यान रखते हैं । दादा अपने कार्य स्थल को बिल्कुल अपना घर समझ कर उसका ध्यान रखते हैं । उनकी यही विशेषता उनको पुरुषोत्तम बनाती है । उनकी इसी मेहनत, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित होकर राहतगढ़ (सागर, मध्य प्रदेश) के एस.डी.एम. ने उनको पुरुस्कृत भीकिया।

 

गत वर्ष दादा का स्थानान्तरण शासकीय माध्यमिक कन्या शाला, राहतगढ़ मेंहुआ । उस समय इस विद्यालय की स्थिति भी बहुत खराब थी। लोग विद्यालय परिसर में आकर वहाँ की दीवारों पर पेसाब करते थे । चाहे शिक्षक हों अथवा समुदाय के लोग, विद्यालय में कहीं भी पान-गुटखा खाकर थूँक देते थे । विद्यालय के शौचालय की स्थिति भी बेहद खराब थी । विद्यालय की इस दयनीय स्थिति में किस प्रकार सुधार लाया जाए, किसी को इसकी कोई परवाह न थी।जब दादा का इस विद्यालय में स्थानान्तरण हुआ तो उनसेविद्यालय की यह स्थिति देखी नहीं गई और उन्होंनेइसमें सुधार करने का निर्णय लिया ।

 

ब्लॉक के अफसर भी दादा का बहुत मान-सम्मान और आदर करते थे; दादा को इन अफसरों का भी पूर्ण सहयोग मिला । उन अफसरों को पता था कि दादा बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति हैं इसलिए वह दादा कि किसी भी बात को मना नहीं करते थे । विद्यालय में आने के बाद दादा ने सर्वप्रथम विद्यालय परिसर में व्याप्त गंदगी को साफ़ करने का जिम्मा उठाया ।  इसके बाद उन्होंने समुदाय के लोगों का विद्यालय परिसर की दीवारों पर पेसाब करना बंद करवाया । फिर दादा ने विद्यालय के शिक्षकों और प्रधानाचार्य को भी यह कहकर विद्यालय परिसर में पान-गुटखा खा कर थूकने से मना कर दिया कि “यह थूकने की जगह नहीं है, इसलिए आप यहाँ मत थूकिये और अगर थूकना ही है तो थूकने के बाद उस जगहकी सफाई भी स्वयं कीजिये।”इस तरह दादा ने विद्यालय परिसर में शिक्षकों केथूकने की आदत बंद करवाई । इसके पश्चात् दादा ने बड़े अफसरों से बात करके; विद्यालय के शौचालय की मरम्मत करवाकर और वहाँ पानी की समुचित व्यवस्था करवाई ।फिर दादा ने विद्यालय में वृक्षारोपण का कार्य आरम्भ किया और अपने हाथों से गमले बनाकर उनमे पौधे लगाये और उनको विद्यालय की दीवारों के साथ-साथ स्थापित किया ।

 

पुरुषोत्तम दादा सप्ताह के सातों दिन विद्यालय में कार्य करते है । अवकाश के दिन भी वह पौधों को पानी देने विद्यालय आते हैं।वह पेड़-पौधों के साथ-साथविद्यालय की सफाई का भीविशेष ध्यान रखते हैं । दादा के आने के पश्चात् इस विद्यालय की स्थिति में बहुत सुधार आया है । एक समय ऐसा था कि विद्यालय परिसर में व्याप्त गंदगी के कारण विद्यार्थी विद्यालय आना भी पसंद नहीं करते थे और आज स्थिति यह है कि विद्यालय में विद्यार्थियों की उपस्थिति, पहले की तुलना में बढ़ गई है और सभी विद्यार्थी अपनेइस विद्यालय पर गर्व महसूस करते हैं । आजराहतगढ़ का यह विद्यालय, अपने शहर के सुन्दर विद्यालयों में से एक है।

 

सागर यात्रा का यह सबसे सुखद, स्वर्णिम और यादगार पल था जिसने मेरे मन को हर्ष से भर दिया । इस घटना ने मुझे यह बताया कि प्रयास तो सबसे पहले व्यक्तिगत होते हैं, समाज तो इससे बाद में जुड़ता है । इसलिएमेरा तो यही मानना है कि सफलता और असफलता के भावों को मन से निकाल कर प्रयास तोहमें निरंतर करते रहना चाहिए । हमारायह निरंतर प्रयास ही हमें पुरुषों में उत्तम बनाता है, पुरुषोत्तम बनाता है ।

 

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